Friday 21 February 2014

विधिक सेवा भी आरटीआइ के दायरे में


विधिक सहायता भी सूचनाधिकार के दायरे में आती है. विधिक सेवा समितियां अपने किसी भी निर्णय या कार्रवाई के बारे में इस कानून के तहत जनता को  जानकारी देने के लिए बाध्य हैं.  आप इस अधिकार का उपयोग  करें, इसके लिए यह जानना जरूरी है कि समितियां विधिक सहायता के आवेदन पर किस तरह कार्रवाई करती हैं?
कैसे निबटाये जाते हैं आवेदन
कोई व्यक्ति जब विधिक सहायता के लिए आवेदन देता है, तो उस की जांच होती है. यह जांच दो तरह की होती है. पहली जांच में देखा जाता है कि आवेदन-पत्र पूर्ण है या नहीं? उसके साथ शपथ-पत्र लगा हुआ है या नहीं? उसमें किसी तरह की कमी तो नहीं है? यह काम समिति की सहायता में लगाये गये कर्मी करते हैं. दूसरी जांच समिति के अधिकारी करते हैं. इसमें देखा जाता है कि  विधिक सहायता की मांग कितनी उचित है और इसे दिया जाये या नहीं? अगर आवेदन जिला विधिक सेवा प्राधिकार या समिति को मिला है, तो उसके सचिव और अगर उच्च न्यायालय की विधिक सेवा समिति को मिला है, तो उसके सचिव ऐसे आवेदन पर विचार के लिए तिथि करते हैं. विधिक सहायता देने और सहायता के स्वरूप व मात्र तय करने का अधिकार केवल समिति को है.
अस्वीकृति का कारण बताना जरूरी
अगर कोई आवेदन या विधिक सेवा प्राप्त करने का दावा  इस योग्य नहीं है कि समिति सहायता की स्वीकृति दे, तो उसे यह अधिकार कि वह उसे अस्वीकार कर दे. इसके लिए भी स्पष्ट और पारदर्शी प्रक्रिया तय है. समिति किसी आवेदन को मनमाने  ढंग से स्वीकार या अस्वीकार नहीं कर सकती. उसे अस्वीकार करने का कारण बताना होता है. इसके लिए समिति के पास रजिस्टर होता है. उसमें प्राप्त आवेदन-पत्रों की सूची, उन पर की गयी कार्रवाई, स्वीकृति और  अस्वीकृति जैसी सूचनाएं अंकित की जाती हैं. अगर समिति किसी आवेदन को अस्वीकार करती है, तो उसके कारण का उल्लेख उस रजिस्टर में किया जाता है. किसी भी नागरिक को उस रजिस्टर की फोटो कॉपी प्राप्त करने का अधिकार है.  इसके लिए वह सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 की धारा-6 के तहत अर्जी दे  सकता है.
किस साल कितने आवेदन मिले और कितने लोगों को, किस-किस व्यक्ति को और कितनी-कितनी विधिक सहायता दी गयी, इसकी सूचना भी मांगी जा सकती है. उसी तरह कितने आवेदन, किस-किस व्यक्ति के आवेदन और किस-किस आधार पर  अस्वीकार किये गये, यह भी सूचनाधिकार के तहत आप मांग सकते  हैं. किसी खास मामले में भी आवेदन की स्वीकृति, अस्वीकृति और अस्वीकृति के कारणों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है. कोई व्यक्ति सूचनाधिकार के तहत इस रजिस्टर को देख भी सकता है. यानी यह पूरी तरह पारदर्शी है और जनता को इससे जुड़ी सूचना मांगने या रजिस्टर देखने का अधिकार है. सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 की धारा-6(2) के तहत नागरिक को यह बताने की जरूरी नहीं है कि वह यह सूचना क्यों मांग रहा है. अधिनियम की धारा-7(5) के तहत बीपीएल परिवार ऐसी सूचना नि:शुल्क मांग सकता है.
कितने दिनों में होता है फैसला
यह जानना भी जरूरी है कि विधिक सहायता के  लिए दिये गये आवेदन पर कितने दिनों में समिति निर्णय लेती है? इस मामले में समितियों से पूरी संवेदनशीलता बरतने की अपेक्षा की गयी है. यानी जितनी जल्दी हो सके, उसे इस पर निर्णय लेना है, लेकिन इसमें एक माह से ज्यादा समय नहीं लगे, यह व्यवस्था की गयी है.
कब आवेदन अस्वीकार किये जायेंगे
कुछ ऐसे मामले हैं, जिनमें विधिक सहायता के लिए प्राप्त  आवेदन-पत्र को विधिक सेवा समिति रद्द कर सकती है. इसलिए इस सहायता के लिए आवेदन करते समय इन बातों की सावधानी रखनी चाहिए हैं. 
ये हैं : अगर समिति को ऐसा लगता है कि आवेदक ने जानबूझ कर कोई सूचना छुपायी है या गलत सूचना दी है, तो उसके आवेदन को अस्वीकार कर सकती है. जैसे अपनी आर्थिक स्थिति या अपने मूल निवास की सूचना आदि.
ऐसे  मामले, जिसमें समिति को विश्वास हो जाता है कि आवेदक ने सिविल, आपराधिक, राजस्व या अन्य विषय से जुड़े ऐसे मुकदमे में सहायता मांगी है, जो पहली नजर में कार्रवाई का मामला नहीं बनता है.
सहायता की मांग करने वाला व्यक्ति उस दायरे में नहीं आता है, जिसमें इसके लिए व्यक्ति की योग्यता/पात्रता तय की गयी है.
समिति विधिक सहायता के तहत वैसे वकीलों की सूची तैयार रखती है, जिनकी सेवा सहायता मांगने वाले व्यक्ति को उपलब्ध करायी जाती है. आम तौर पर यह अपेक्षा की जाती है कि सहायता मांगने वाला व्यक्ति उस सूची में से ही वकील का चुनाव अपनी इच्छा और विवेक से करे. अगर कोई पक्षकार ऐसे वकील को चुनता है, जिसकी फीस बहुत अधिक है और वह सूची में शामिल नहीं है या बाहर से किसी बड़े वकील को बुलाना चाहता है, तो ऐसे वकील की फीस समिति नहीं दे सकती है.
क्या है वकीलों की फीस का नियम
समिति वैसे वकीलों की सेवा ही उपलब्ध कराने का पहला प्रयास करती है, जिनका नाम उसकी सूची में शामिल है और किसी मामले में पक्षकार की ओर से कोर्ट में मुकदमे की पैरवी करने के लिए जो तैयार होते हैं. समिति का पहला प्रयास यह होता है कि बिना फीस के वकील की सेवा आवेदक को उपलब्ध करायी जाये. जब यह संभव नहीं होता है, तब वकीलों को फीस देने को वह सहमत होती है. इसके लिए वकीलों की फीस की दर तय है.
दोहरे लाभ की अनुमति नहीं
विधिक सहायता के तहत किसी पक्षकार की मदद करने वाले वकील को इसी शर्त पर भुगतान होता है कि वह इसके लिए और किसी स्नेत से किसी भी रूप में लाभ नहीं लेगा. यानी समिति से जितने रुपये मिलेंगे, उतने में ही उसे अपनी सेवा देनी है. बाद में पक्षकार, उसके रिश्तेदार या उसके किसी परिचित से न तो अलग से पैसे लेगा और न ही कोई उपहार. वकील को इस आशय का प्रमाण-पत्र भी देना होता है. इसका मतलब यह हुआ कि अगर आपने विधिक सहायता के तहत किसी वकील की सेवा ली है, तो उसे समिति से मिले पैसे के अलावा अपनी ओर से कोई राशि नहीं दें.
स्थायी लोक अदालत भी आर्थिक मदद का मार्ग
पिछले अंक में हमने लोक अदालत और स्थायी लोक अदालत की विस्तार से चर्चा की. यहां स्थायी लोक अदालत को लेकर यह जानकारी प्रासंगिक है कि स्थायी लोक अदालत भी वित्तीय मदद का बड़ा साधन है. राज्य के सभी जिलों में स्थायी लोक अदालत का गठन हो चुका है और वहां मुकदमों का निबटारा हो रहा है. जो मुकदमे सुलह से सुलझाये जा सकते हैं, वैसे मुकदमों को लोक अदालत में स्वीकार किया जाता है. किसी कोर्ट में पहले से चल रहे मुकदमे को भी लोक अदालत में ट्रांसफर कराया जा सकता है और किसी नये मुकदमे को सीधा लोक अदालत में दायर किया जा सकता है.
किस तरह के आर्थिक लाभ
स्थायी लोक अदालत आर्थिक रूप से ज्यादा उपयोगी और मददगार हैं. जो लोग (मुकदमे के पक्षकार) विधिक सहायता का लाभ नहीं ले सकते हैं, वे स्थायी लोक अदालत के जरिये आर्थिक लाभ ले सकते हैं. ये लाभ परोक्ष हैं. 
जैसै:
इसमें वकील की फीस का खर्च नहीं होता है.
स्थायी लोक अदालत में मुकदमा ले जाने पर कोर्ट-फीस नहीं लगती.
अगर पहले को कोई मुकदमा चल रहा है और उसमें कोर्ट-फीस दी गयी हो, तो लोक अदालत में मामले के सुलझने पर वह कोर्ट-फीस वापस हो जाती है.
मुकदमे के निष्पादन के लिए ज्यादा तारीख नहीं दी जाती होती. यानी बार-बार अदालत का चक्कर लगाने से होने वाला खर्च यहां बचता है.
मुआवजे और हर्जाने के रूप में जो भी राशि तय होती है, उसका भुगतान आसानी से और तुरंत हो जाता है.
चूंकि लोक अदालत और स्थायी लोक अदालत के फैसले के खिलाफ कहीं अपील नहीं होती. इसलिए आगे भी खर्च की स्थिति पैदा नहीं होती.


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