Sunday 12 January 2014

समाज को विवेकानंद की बतायी राह पर लौटना होगा


महापुरुष सिर्फ विचारों से ही नहीं, कर्मों से भी अनुकरणीय होते हैं. महात्मा गांधी ने कहा था मेरा जीवन ही संदेश है. यह बात विवेकानंद ने कही तो नहीं, लेकिन उनका जीवन निश्चित तौर पर अनुकरणीय संदेश के तौर पर हमारे सामने उपस्थित है. विवेकानंद के जीवन के कई ऐसे प्रसंग विभिन्न किताबों में मिलते हैं, जिनसे काफी कुछ सीखा जा सकता है, नयी दृष्टि प्राप्त की जा सकती है. इन प्रसंगों से गुजरना जीवन को लेकर एक सकारात्मक सोच विकसित करने के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण माना जा सकता है. हम यहां विवेकानंद के जीवन से जुड़े ऐसे ही कुछ प्रसंगों का संकलन इस उम्मीद से कर रहे हैं कि ये युवाओं समेत व्यापक समाज को नयी प्रेरणा देने का काम करेंगे.
* लक्ष्य पर ध्यान लगाओ
स्वामी विवेकानंद अमेरिका में भ्रमण कर रहे थे. एक जगह से गुजरते हुए उन्होंने पुल पर खड़े कुछ लड़कों को नदी में तैर रहे अंडे के छिलकों पर बंदूक से निशाना लगाते देखा. किसी भी लड़के का एक भी निशाना सही नहीं लग रहा था. तब उन्होंने एक लड़के से बंदूक ली और खुद निशाना लगाने लगे.
उन्होंने पहला निशाना लगाया और वह बिलकुल सही लगा. फिर एक के बाद एक उन्होंने कुल 12 निशाने लगाये और सभी बिलकुल सटीक लगे. ये देख लड़के दंग रह गए और उनसे पूछा, भला आप ये कैसे कर लेते हैं? स्वामी जी बोले, तुम जो भी कर रहे हो अपना पूरा दिमाग उसी एक काम में लगाओ. अगर तुम निशाना लगा रहे हो, तो तम्हारा पूरा ध्यान सिर्फ अपने लक्ष्य पर होना चाहिए. तब तुम कभी चूकोगे नहीं. अगर तुम अपना पाठ पढ़ रहे हो, तो सिर्फ पाठ के बारे में सोचो. मेरे देश में बच्चों को यही करना सिखाया जाता है.
* संस्कृति वस्त्रों में नहीं, चरित्र के विकास में है
एक बार स्वामी विवेकानंद विदेश यात्रा पर गये थे. उनका भगवा वस्त्र और आकर्षक पगड़ी देख कर लोग अचंभित रह गये और वे यह पूछे बिना नहीं रह सके, आपका बाकी सामान कहां है?
स्वामी जी बोले, मेरे पास बस यही सामान है.
तो कुछ लोगों ने व्यंग्य किया, अरे! यह कैसी संस्कृति है आपकी? तन पर केवल एक भगवा चादर लपेट रखी है. कोट-पतलून जैसा कुछ भी पहनावा नहीं है?
इस पर स्वामी विवेकानंद जी मुस्कुराये और बोले, हमारी संस्कृति आपकी संस्कृति से भिन्न है. आपकी संस्कृति का निर्माण आपके दर्जी करते हैं. जबकि हमारी संस्कृति का निर्माण हमारा चरित्र करता है. संस्कृति वस्त्रों में नहीं, चरित्र के विकास में है.
* मृत्यु के समक्ष
एक अंगरेज मित्र तथा कु. मूलर के साथ स्वामीजी मैदान में टहल रहे थे. उसी समय एक पागल सांड तेजी से उनकी ओर बढ़ने लगा. अंगरेज सज्जन भाग कर पहाड़ी के दूसरी छोर पर जा खड़े हुए. कु. मूलर भी जितना हो सका दौड़ी और घबराकर गिर पड़ीं. स्वामीजी ने उन्हें सहायता पहुंचाने का कोई और उपाय न देख खुद सांड के सामने खड़े हो गये और सोचने लगे, ह्यचलो, अंत आ ही पहुंचा.
बाद में उन्होंने बताया था कि उस समय उनका मन हिसाब करने में लगा हुआ था कि सांड उन्हें कितनी दूर फेंकेगा. लेकिन कुछ देर बाद वह ठहर गया और पीछे हटने लगा. अपने कायरतापूर्ण पलायन पर वे अंगरेज बड़े लज्जित हुए. कु. मूलर ने पूछा कि वे ऐसी खतरनाक स्थिति से सामना करने का साहस कैसे जुटा सके? स्वामीजी ने पत्थर के दो टुकड़े उठाकर उन्हें आपस में टकराते हुए कहा, खतरे और मृत्यु के समक्ष मैं स्वयं को चकमक पत्थर के समान सबल महसूस करता हूं, क्योंकि मैंने ईश्वर के चरण स्पर्श किये हैं.
* देने का आनंद, पाने के आनंद से बड़ा
भ्रमण एवं भाषणों से थके हुए स्वामी विवेकानंद अपने निवास स्थान पर लौटे. उन दिनों वे अमेरिका में एक महिला के यहां ठहरे हुए थे. वे अपने हाथों से भोजन बनाते थे. एक दिन वे भोजन की तैयारी कर रहे थे कि कुछ बच्चे पास आकर खड़े हो गये.
उनके पास सामान्यतया बच्चों का आना-जाना लगा ही रहता था. बच्चे भूखे थे. स्वामीजी ने अपनी सारी रोटियां एक-एक कर बच्चों में बांट दीं. महिला वहीं बैठी सब कुछ देख रही थी. यह सब देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ.  आखिर उससे रहा नहीं गया और उसने स्वामीजी से पूछ ही लिया, आपने सारी रोटियां उन बच्चों को दे डालीं, अब आप क्या खायेंगे?
स्वामीजी के अधरों पर मुस्कान दौड़ गयी. उन्होंने प्रसन्न होकर कहा, मां, रोटी तो पेट की ज्वाला शांत करनेवाली वस्तु है. इस पेट में न सही, उस पेट में ही सही. देने का आनंद पाने के आनंद से बड़ा होता है.
* सच बोलने की हिम्मत
स्वामी विवेकानंद एक दिन कक्षा में मित्रों को कहानी सुना रहे थे. सभी इतने मग्न थे कि उन्हें पता ही नहीं चला कि कब मास्टरजी कक्षा में आये और पढ़ाना शुरू कर दिया. मास्टरजी को कुछ फुसफुसाहट सुनाई दी. कौन बात कर रहा है? उन्होंने पूछा. सभी ने स्वामी जी और उनके साथ बैठे छात्रों की तरफ इशारा कर दिया. मास्टरजी ने तुरंत उन छात्रों को बुलाया और पाठ से संबंधित एक प्रश्न पूछने लगे. जब कोई उत्तर न दे सका, तो मास्टरजी ने स्वामी जी से भी वही प्रश्न किया.
उन्होंने उत्तर दे दिया. मास्टरजी को यकीन हो गया कि स्वामी जी पाठ पर ध्यान दे रहे थे और बाकी छात्र बातचीत में लगे थे. उन्होंने स्वामी जी को छोड़ सभी को बेंच पर खड़े होने की सजा दे दी. सभी छात्र बेंच पर खड़े होने लगे, स्वामी जी ने भी यही किया. तब मास्टर जी स्वामी जी से बोले, तुम बैठ जाओ. नहीं सर, मुझे भी खड़ा होना होगा क्योंकि मैं ही इन छात्रों से बात कर रहा था. स्वामी जी ने कहा. सभी उनकी सच बोलने की हिम्मत देख बहुत प्रभावित हुए.
* मन की शक्ति अभ्यास से आती है
यह बात उन दिनों की है जब स्वामी विवेकानंद देश भ्रमण में थे. साथ में उनके एक गुरु भाई भी थे. स्वाध्याय, सत्संग एवं कठोर तप का अविराम सिलसिला चल रहा था. जहां कहीं अच्छे ग्रंथ मिलते, वे उनको पढ़ना नहीं भूलते थे. किसी नयी जगह जाने पर उनकी सब से पहली तलाश किसी अच्छे पुस्तकालय की रहती.
एक जगह एक पुस्तकालय ने उन्हें बहुत आकर्षित किया. उन्होंने सोचा, क्यों न यहां थोड़े दिनों तक डेरा जमाया जाये. उनके गुरुभाई उन्हें पुस्तकालय से संस्कृत और अंगरेजी की नयी-नयी किताबें लाकर देते थे. स्वामीजी उन्हें पढ़कर अगले दिन वापस कर देते.
रोज नयी किताबें वह भी पर्याप्त पृष्ठों वाली इस तरह से देते एवं वापस लेते हुए उस पुस्तकालय का अधीक्षक बड़ा हैरान हो गया. उसने स्वामी जी के गुरु भाई से कहा, क्या आप इतनी सारी नयी-नयी किताबें केवल देखने के लिए ले जाते हैं? यदि इन्हें देखना ही है, तो मैं यों ही यहां पर दिखा देता हूं. रोज इतना वजन उठाने की क्या जरूरत है.
लाइब्रेरियन की इस बात पर स्वामी जी के गुरु भाई ने गंभीरतापूर्वक कहा, जैसा आप समझ रहे हैं वैसा कुछ भी नहीं है. हमारे गुरु भाई इन सब पुस्तकों को पूरी गंभीरता से पढ़ते हैं, फिर वापस करते हैं.
इस उत्तर से आश्चर्यचकित होते हुए लाइब्रेरियन ने कहा, यदि ऐसा है तो मैं उनसे जरूर मिलना चाहूंगा. अगले दिन स्वामी जी उससे मिले और कहा, महाशय, आप हैरान न हों. मैंने न केवल उन किताबों को पढ़ा है, बल्कि उनको याद भी कर लिया है. इतना कहते हुए उन्होंने वापस की गयी कुछ किताबें उसे थमायी और उनके कई महत्वपूर्ण अंशों को शब्दश: सुना दिया.
लाइब्रेरियन चकित रह गया. उसने उनकी याददाश्त का रहस्य पूछा. स्वामी जी बोले, अगर पूरी तरह एकाग्र होकर पढ़ा जाए, तो चीजें दिमाग में अंकित हो जाती हैं. पर इसके लिए आवश्यक है कि मन की धारणशक्ति अधिक से अधिक हो और वह शक्ति अभ्यास से आती है.
* खतरे के आगे डरो मत
स्वामी विवेकानंद बचपन से ही निडर थे, जब वह आठ साल के थे तभी से एक मित्र के यहां खेलने जाया करते थे. उसके घर में एक चंपक पेड़ था. एक दिन वह उस पेड़ को पकड़ कर झूल रहे थे. मित्र के दादाजी पहुंचे. उन्हें डर था कि कहीं नरेंद्र गिर न जाएं, इसलिए उन्होंने समझाते हुआ कहा, नरेंद्र, तुम इस पेड़ से दूर रहो, क्योंकि इस पेड़ पर एक दैत्य रहता है.
नरेंद्र को अचरज हुआ. उसने दादाजी से दैत्य के बारे में और भी कुछ बताने का आग्रह किया. दादाजी बोले, वह पेड़ पर चढ़ने वालों  की गर्दन तोड़ देता है. नरेंद्र बिना कुछ कहे आगे बढ़ गये. दादाजी भी मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गये. उन्हें लगा कि बच्चा डर गया है. पर जैसे ही वे कुछ आगे बढ़े नरेंद्र पुन: पेड़ पर चढ़ गये और डाल पर झूलने लगे. मित्र जोर से चीखा, तुमने दादाजी की बात नहीं सुनी. नरेंद्र जोर से हंसे और बोले, मित्र डरो मत! तुम भी कितने भोले हो! सिर्फ इसलिए कि किसी ने तुमसे कुछ कहा है उस पर यकीन मत करो. खुद सोचो अगर यह बात सच होती तो मेरी गर्दन कब की टूट चुकी होती.
* विवेकानंद की कविता
काली माता
छिप गये तारे गगन के
बादलों पर चढ़े बादल,
कांपकर गहरा अंधेरा,
गरजते तूफान में, शत
लक्ष पागल प्राण छूटे
जल्द कारागार से- द्रुम
जड़ समेत उखाड़कर, हर
बला पथ की साफ करके.
शोर से आ मिला सागर,
शिखर लहरों के पलटते
उठ रहे हैं कृष्ण नभ का
स्पर्श करने के लिए द्रुत,
किरण जैसे अमंगल की
हर तरफ से खोलती है
मृत्यु-छायाएं सहस्त्रों,
देहवाली घनी काली.
आधि-व्याधि बिखेरती, ऐ,
नाचती पागल हुलसकर
आ, जननि, आ जननि, आ, आ!
नाम है आतंक तेरा,
मृत्यु तेरे श्वास में है,
चरण उठकर सर्वदा को
विश्व एक मिटा रहा है,
समय तू है, सर्वनाशिनि,
आ, जननि, आ जननि, आ, आ!
साहसी, जो चाहता है
दुख, मिल जाना मरण से,
नाश की गति नाचता है,

मां उसी के पास आई.

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