Tuesday 28 January 2014

जनहित याचिका के ऐतिहासिक नतीजे



भोजन का अधिकार
बात 2001 की है. देश के कई राज्यों में भीषण सुखाड़ पड़ी थी. लोग दाने-दाने के लिए तरस रहे थे. भूख से मौत हो रही थी. दूसरी ओर सरकारी गोदामों में अनाज भरे पड़े थे. यह शासन का जनता के प्रति घोर अमानवीय व्यवहार था. तब पीयूसीएल (पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज) की राजस्थान इकाई ने सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की. उसने संविधान की धारा 21 का हवाला देते हुए कहा भारत के प्रत्येक नागरिक को जीने का अधिकार है.

सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार जीने के अधिकार को परिभाषित किया है और इज्जत से जीवन जीने के अधिकार और रोटी के अधिकार की बात कही है. इस जनहित याचिका के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करने के लिए बाध्य किया कि भूख से कोई मौत न हो. इस मुकदमे को भोजन के अधिकार केस के नाम से जाना जाता है.
दिल्ली बनी प्रदूषण मुक्त
दिल्ली के रिहायशी इलाकों में लाखों औद्योगिक इकाइयां चल रही थीं. उनसे बड़े पैमाने पर प्रदूषण फैल रहा था. इससे आम जनजीवन प्रभावित था. इस प्रदूषण को कम करने और दिल्ली मास्टर प्लान बनाने को लेकर 1985 में सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की गयी. एमसी मेहता बनाम भारतीय संघ और अन्य के नाम से यह मुकदमा करीब सोलह साल चला. इस लंबे चले केस में अदालत ने रिहायशी इलाकों से करीब एक लाख औद्योगिक इकाइयों को बाहर ले जाने का आदेश दिया. हालांकि इस फैसले की आलोचना भी हुई. आलोचना की एक वजह यह भी थी कि इससे इन औद्योगिक इकाइयों में काम करने वाले करीब 20 लाख लोग प्रभावित हुए.
जनहित याचिका ने लाया सीएनजी
महानगरों में सीएनजी इंधन से बसों और ऑटो रिक्शा को चलाने की व्यवस्था जनहित याचिका की ही देन है. सर्वोच्च न्यायालय ने इसी के आधार पर यह आदेश दिया कि दिल्ली की सीटी बसों को योजना बना कर डीजल से सीएनजी में बदला जाये, ताकि प्रदूषण की दर में कमी आये.
फीस बढ़ाने की स्कूलों की मनमानी पर रोक
बात 1997 की है. दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दाखिल की गयी और निजी स्कूलों द्वारा फीस बढ़ाने में मनमानी करने पर रोक की मांग की गयी. न्यायालय ने 1998 में अपना निर्णय दिया, जिसमें कहा गया कि स्कूलों को व्यवसाय का जरिया नहीं बनाया जा सकता, लेकिन 2009 में स्कूलों ने यह कहते हुए फीस बढ़ा दी कि छठे वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने के लिए ऐसा करना उनकी बाध्यता है. अशोक अग्रवाल नामक व्यक्ति ने इसे जनहित याचिका के माध्यम से उच्च न्यायालय में उठाया. कोर्ट ने फीस बढ़ाने की बाध्यता की जांच के लिए अनिल देव कमेटी का गठन किया. कमेटी ने दो सौ स्कूलों के रिकॉर्ड की जांच की. जांच में पाया गया कि 64 स्कूलों ने फीस बढ़ाने में मनमानी की है. उसने बढ़ी फीस को सूद समेत लौटाने का आदेश देने की सिफारिश की.
बचपन बचाओ आंदोलन की बड़ी पहल
बचपन बचाओ आंदोलन के भुवन नामक कार्यकर्ता ने जनवरी 2009 में दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर प्लेसमेंट एजेंसियों द्वारा काम दिलाने के नाम पर बच्चों और औरतों की तस्करी पर रोक लगाने की मांग की. तब यह बात उजागर हुई कि सरकार ने ऐसी एजेंसियों पर अंकुश रखने के लिए कोई कानून ही नहीं बनाया है. इस मामले के उजागर होने के बाद प्लेसमेंट कंपनियों के लिए श्रम विभाग के अधीन पंजीयन कराने की व्यवस्था बनी. इस पूरी कार्रवाई में करीब दो साल का समय लगा.
झुग्गी-झोपड़ी वालों कों मिला आश्रय
दिल्ली में एक बड़ी आबादी झुग्गी-झोपड़ी में रहती है. सरकार मास्टर प्लान, विकास और अतिक्रमण हटाने के नाम पर ऐसी बस्तियों को उजाड़ देती है. उन्हें बसाने को लेकर चिंता नहीं की जाती है. इस मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दाखिल की गयी और दिल्ली सरकार एवं एमसीडी को निर्देश देने की गुहार लगायी कि वह गरीबों को उजाड़ने के पहले उन्हें बसाए, क्योंकि वे भी भारत के नागरिक हैं और उन्हें भी जीने का अधिकार है. कोर्ट ने सरकार और एमसीडी को ऐसी किसी भी बस्ती को उजाड़ने के पहले उन्हें बसाने तथा उन बस्तियों में सभी बुनियादी सुविधाएं पहुंचाने का आदेश दिया.
रिक्शा चालकों को राहत
दिल्ली के रिक्शा चालकों को जनहित याचिका से जीविका का अधिकार मिला. हुआ ऐसा कि एमसीडी ने रिक्शा चालकों को यह कह कर लाइसेंस देना बंद कर दिया कि 99 हजार ज्यादा रिक्शे को लाइसेंस दिया जा चुका है और संख्या उसके द्वारा तय की गयी सीमा से ज्यादा है. उसने यह भी नियम लागू किया कि रिक्शा वही चलायेगा, जो उसका मालिक होगा. इससे हजारों गरीब बेकार हो गये. उनकी ओर से दिल्ली हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की गयी. कोर्ट ने एमसीडी को रिक्शों को लाइसेंस देने की संख्या की ऊपरी संख्या को बढ़ाने का निर्देश दिया और रिक्शा चालक के उसके मालिक होने के नियम को रद्द कर दिया.
कहां करें याचिका
कोई व्यक्ति संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय में और अनुच्छेद-32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर कर सकता है. सामान्यत: पहले उच्च न्यायालय में और वहां खारिज होने पर सर्वोच्च न्यायालय में जनहित दायर किया जाता है. अगर कोई मामला केंद्र सरकार और व्यापक जनहित से जुड़ा हो, तो ऐसे मामले में सीधा सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की जा सकती है.
कैसे कर सकते हैं जनहित याचिका दायर
कोई व्यक्ति संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय में और अनुच्छेद-32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर कर सकता है. सामान्यत: पहले उच्च न्यायालय में और वहां खारिज होने पर सर्वोच्च न्यायालय में जनहित दायर किया जाता है. अगर कोई मामला केंद्र सरकार और व्यापक जनहित से जुड़ा हो, तो ऐसे मामले में सीधा सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की जा सकती है.
पत्र के जरिये जनहित याचिका दायर करने की विधि
इसमें देश के किसी भी हिस्से में रहने वाला कोई व्यक्ति संबंधित उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिख कर ऐसे मामले में हस्तक्षेप करने और सरकार को निर्देश देने की गुहार लगा सकता कि जो जनहित से जुड़ा हो और जिसमें मूल अधिकार का हनन हो रहा हो. पत्र में यह बताना होता है और उसके साथ ऐसे साक्ष्य लगाये जाते हैं, जिनसे यह साबित होता है कि मामला जनहित का है. तब कोर्ट यह देखता है कि मामला वास्तव में जनहित में या नहीं? जब पत्र के आधार पर कोर्ट संज्ञान लेता है, तो उसे पत्र को जनहित याचिका के रूप में स्वीकृत माना जाता है. तब कोर्ट संबंधित पक्ष को नोटिस भेजता है और याचिका दायर करने वाले को अपनी बात साबित करने का अवसर देता है. इसके लिए जरूरत पड़ने पर उसे सरकारी वकील भी उपलब्ध कराया जाता है. इसमें दो बातें खास हैं. पत्र उसी राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को भेजा जाता है, जिस राज्य से संबंधित मामला हो, लेकिन इसके लिए यह जरूरी नहीं है कि पत्र लिखने वाला यानी जनहित याचिका लाने वाला व्यक्ति भी उसी राज्य का हो.
लेटर लिखने के लिए कोर्ट के पते इस तरह हैं :
चीफ जस्टिस
सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया
तिलक मार्ग, नई दिल्ली- 110001
चीफ जस्टिस
पटना उच्च न्यायालय, बेली रोड, पटना
चीफ जस्टिस
झारखंड उच्च न्यायालय
रांची
कोर्ट का स्वत: संज्ञान
कोर्ट खुद भी ऐसे मामले में संज्ञान लेता है. उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय किसी भी माध्यम में प्राप्त ऐसी सूचना पर स्वत: संज्ञान लेता है, जिसमें मौलिक अधिकार या संवैधानिक व्यवस्था का उल्लंघन हुआ है. इसमें समाचार-पत्र छपी या चैनलों में दिखायी गयी खबरें भी आधार बनती हैं. इसमें कोर्ट द्वारा संबंधित सरकार और पक्ष को सीधा नोटिस भेजा जाता है.

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